05 अगस्त, 2010

सुन जरा एक 'कचरा' धुन



कल बबली (मेरी वाइफ) ने घर से लौटकर हमेशा की तरह स्कूल की दिन भर की बातें मुझसे शेयर की। यह कि स्कूल में १५ अगस्त की तैयारियां शुरू हो गई है. और छोटे छोटे बच्चे कई कल्चरल प्रोग्राम पेश करेंगे. उसने बताया कि दो तीन बच्चे गढ़वाली गीत भी गाएंगे. उदाहरण के तौर पर एलकेजी का एक बच्चा 'घुच्चा घुना घुन' गाना तैयार कर रहा है. अब हमेशा की तरह मैं मूल बातचीत से भटकर फ्लैश बैक में चला गया. और दिमाग में 'घुच्चा घुना घुन' 'घुच्चा घुना घुन' का इको होने लगा. बस मैने कई बार नहीं नहीं .... नहीं किया. वरना शॉक तो मुझे कुछ इसी तरह का लगा था. घुच्चा ... घुना... घुन... ये क्या है भई. क्या हम इन्हीं गानों से अपनी बोली भाषा को बचाएंगे? या कि यही गाने अब हमारे प्रतिनिधि लोक या प्रचलित गीत होंगे? कल हमारे बच्चे ही हमसे घुच्चा ... घुना... घुन... के मायने पूछेंगे तो हम कैसे समझाएंगे. पहले से ही विलुप्त होती गढ़वाली में हम ये कौन सा शब्द कोश जोड़ रहे हैं ? घुच्चा ... घुना... घुन... घुच्चा ... घुना... घुन... घुच्चा ... घुना... घुन... ९० के दशक में नेगी जी के उत्कृष्ट काल के बावजूद उस समय गढ़वाली गीतों का बहुत बड़ा मार्केट नहीं था. ये ९२९३ के आसपास अनिल बिष्ट ने 'भानुमति को पाबौ बजार बुलाकर कुर्ता सुलार' जैसी शानदार भेंट देने का वादा क्या किया कि हंगामा मच गया. गाना जैसा भी था, लेकिन हिट हुआ. और अनिल बिष्ट कम से कम उस वक्त बड़ा नाम हो गए थे. इस तरह भानुमति ने हल्के गानों के लिए एक लकीर खींच दी। और देखते ही देखते ऐसे लिख्वार, गित्वार भाईयों की भीड़ उमड़ पड़ी जो कुछ भी हल्के से हल्का, छिछौरे गीतों को गाकर नाम कमाना चाहते थे. ये लोग अपने शौक को पूरा करने के लिए जमा पूंजी लेकर नोएडा दिल्ली के प्रोडक्शन हाउस में जाते, फिर अनाप शनाप गाकर कैसेट भी निकालते. कमाल की बात तो कि ऐसे गीत लोगों को पसंद भी खूब आते गए. मैं देखता हूं कि देहरादून की अधिकांश शादियों में ऐसे ही हल्के, अर्थहीन ओछे गाने खूब बजते हैं और कमाल ये कि लोग इन घुच्चा ... घुना... घुन... पर थिरक भी लेते हैं. माना कि ये अधिकांश गढ़वाली गीत प्रेमी 'रासायनिक द्रव्य' के प्रभाव में ठुमकते हैं. पर मुझे ये देखकर बेहद कोफ्त होती है कि हमारे किसी भी समारोह में ऐसे ही गीतों की भरमार होती है. इन गानों में सिर्फ शब्द ही बकवास होते तो कोई बात नहीं थी, म्यूजिक भी वाहियात किस्म का होता है. लोग फिर भी ठुमक लेते हैं .....


ऐसा नहीं है कि इस जमाने में कुछ भी मीनिंगफुल नहीं लिखा जा रहा है. या उम्दा नहीं है. नेगी दा तो अभी जुटे ही हैं कुछ और नवोदित कलाकार भी अच्छा कर रहे हैं. प्रीतम फिलहाल 'राजुली' और 'सरुली' जैसी धूम नहीं मचा पा रहे हैं तो भी किशन महिपाल ने 'रामनगर रामढ़ोल' बजाकर दिल को सुकून बख्शा है. एक दो गीत मंगलेश भी ठीक गाए हैं. पर ये उम्दा गीत मुझे कहीं भी सुनने को नहीं मिलते. न तो शादी ब्याह के डीजे में ना लोगों के मोबाइल रिंगटोन के रूप में और नहीं लोगों के पर्सनल कलेक्शन में. सब तरफ हावी है तो घुच्चा ... घुना... घुन... एक कचरा धुन.

01 अगस्त, 2010

बरसो, खूब बरसो, ताकि ये पानी ना मांग पाएं


थैंक्स मिस्टर अय्यर. आपने कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए 'खूब बरसो' वाली लाइन क्या पकड़ी कि मुझे लगा मेरा दिल हल्का हो गया. सारी भड़ास निकाल दी आपने. सच में मणि भाई मैं भी यही चाहता हूं, इस बार सावन जो शुरू हुआ है तो फिर ११ अक्टूबर के बाद ही इस पर ब्रेक लगे. इमेज गई तेल लेने मैं तो बस यही चाहता हूं कि बदरा इतने बरसे कि गेम कराने वालों का गेम बज जाए. आखिर क्यूं? व्हाई ? कब तक ? हम लोग इसी इमेज के लिए कलमाड़ी टाइप के लोगों को झेले. वैसे आपकी भड़ास ने एक नुकसान कर दिया है. दरअसल पूरी भारत सरकार सिर्फ कॉमनवेल्थ पर फोकस होकर रह गई है। दस जनपथ की असीम कृपा से सात रेसकोर्स में पिछले छह साल से मौज काट रहे मनमोहन साहब की भी नींद खुल गई है. अब जब मेरे भारत महान के पीएम कॉमनवेल्थ की तैयारियों पर जुट जाएंगे तो गेम्स भी किसी तरह पूरे हो ही जाएंगे और फिर कलमाड़ी क्लीन चिट के साथ बच जाएंगे. खैर छोड़िए इस कलमु???? को. अब आपने रास्ता दिखा ही दिया है तो मैं स्पष्ट कर दूं कि मैं तो इंडिया में सालों साल लगातार मूसलाधार बारिश होते देखना चाहता हूं ताकि और भी बहुत कुछ कबाड़ जो हम झेल रहे हैं वो बह जाए ॥ जैसे ......

पहले इन पर बरसो
शुरुआत जड़ से। मैं पूरी होश के साथ ये घोषणा कर रहा हूं कि मुझे पिछले साठ साल से इस देश पर राज कर रहे एक परिवार से प्राब्लम है। क्यूं? व्हाई ? किसलिए? अरबों की जनसंख्या वाला ये देश आखिर इस परिवार की जागीर कैसे हो गया? 'परनाना' ने शुरुआत की फिर 'नानाजी' और फिर 'दादीअम्मा'. यहां तक तो किसी तरह ठीक था, लेकिन ये क्या फिर 'पापा', बैक डोर से 'मम्मा' और अब तो 'बाबा' भी. शुक्र है बाबा ने अब तक वंश नहीं बढ़ाया है वरना देश की गद्‌दी फिर पीढिय़ों के लिए रिर्जव हो जाती. तो बादल महाशय, जरा इधर भी बरसो, उन लोगों पर बरसो जो अपनी कुर्सी के लिए परिवार सेवा में जुटे हुए हैं. जिन लोगों के लिए 'परिवार इज इंडिया' और 'इंडिया इज परिवार' है. खूब बरसो भाई ऐसे तमाम लोगों को अपने साथ ले जाओ, कमलाड़ी भी इसी कैटेगरी के हैं और मणि भाई भी.

किसानों का नेता

परिवार के इतर भी कई नेता मेरे निशाने पर हैं। अब उन मोटे ताजे नेता को ही लीजिए। कितना बुरा लगा था जब चीनी पचास रुपए केजी तक पहुंच गई थी और होली मौके पर भाई ने कह दिया कि मर तो नहीं जाओगे जो चीनी ना खाओगे. सच उस दिन इतनी निराशा हुई थी कि अब क्या करें? इस सज्जन का तो कुछ भी नहीं बिगड़ा, इसके चेलों ने, बेटी ने दामाद ने खेल, पॉलिटिक्स, बिजनेस का कॉकटेल तैयार कर करोड़ों से अरबों कमाए, फिर भी इसका बाल बांका नहीं हुआ, ये जले पर नमक छिड़कता हुआ आगे बढ़ रहा है. है इंद्र देव आप कहीं हैं तो रोको इसे रोको.

इन्हें मत छोड़ना
और भी कई ये हिट लिस्ट कुछ ज्यादा ही लंबी है, सबके बारे में लिखुंगा तो खुद ही रिपीट मारने लगूंगा। इसलिए इशारे में बताए देता हूं. वो शख्स बुजुर्ग शख्स जो सेक्स पर शोधकर्ताओं के लिए चुनौती बना हुआ है? उम्र ९० कि फिर भी एक साथ तीन ××××××××बीप बीप बीप। हां, वो निहायत शरीफ सफेदपोश भी मेरी लिस्ट में है जो बम विस्फोट में मारे गए लोगों की लाशों के बीच भी अपनी ड्रेस का ख्याल रखता रहा. जिसने जिंदगी भर बस चाटुकारिता की और सिर्फ इस वजह से इस गरीब देश के सीमित संसाधनों को कई दशकों तक इस पर लुटाया गया. हद ये कि अब भी सरकारी खजाने से इसकी मौज जारी है. बरसो यार दिल खोलकर बरसो.

इन पर भी बरसो

भाई, रोना सिर्फ पक्ष का हीं नहीं है। विपक्ष का भी है। बीच बीच में इस देश की गरीब जनता ने साठ साल का विकल्प देने वालों को भी मौका दिया था। भाई लोगों ने किया क्या, काम कम बाते ज्यादा. हवाई फॉयर, गप्पों की बमबारी. मिस्टर आयरनमैन तब एचएम थे, क्या किया साहब ने. कोई भी तो ठोस पहल नहीं की. बस सोते रहे, पांच साल तक. इनकी ऐसे ही लंबी नींद लेने की आदत है, यूपी में आए तो तरह तरह चादर ओढक़र सोते रहे नतीजा विकल्प हाथ से जाता रहा. फिर इनकी पार्टी का भी ऐसा ही हाल है. भाई लोग प्रयोग करते हैं लेकिन वो डिजास्टर साबित होता है. एक सज्जन महज एक लाख में बिक गए तो आजकल वाले भाई साहब जगह जगह नाक कटवा रहे हैं. कोई इन्हें सीरियसली क्यूं लें? फिर इनके लोग संस्कृतनिष्ठ बकवास करते हैं, जैसे आजकल उत्तराखंड़ वाले भाई साहब कह रहे हैं 'भारत का भाल' बनाएंगे, जबकि अगली बार सरकार बनाने के भी लाले पड़ सकते हैं. इसलिए बादल देवता इन पर भी बरसो, ओले गिराओ जो तब भी ना जागे तो बिजली भी गिराओ.

बॉलीवुड पर भी

भाई बादल अब बरसने पर ही आए हो तो उन तमाम बाबुओं पर बरसो जो इस देश में तमाम प्रकार पुरस्कारों रत्नों के लिए नाम की घोषणा करते हैं. जिनका पद्‌म पुरस्कार किसी भी साल चार छह फिल्मी कलाकारों को शामिल किए बिना ग्लैमरहीन हो जाता है. जो सैफअली खान को इस देश का पद्‌म मानते हों जो राठौर जैसे रावण को वीरता पुरस्कार से नवाजते हों जिन्होंने भारतरत्न का आधा कोटा नेताओं के नाम रिजर्व कर दिया है. जो खिलाड़ियों को खेल के इतर सेवाओं के लिए टीम में चुनते हों पुरस्कार देते हों. उन पर भी बरसो ताकि उनका ऊपरी माला कुछ साफ हो सके वो कुछ सोच समझकर फैसले ले सकें.

04 जुलाई, 2010

माही बेटा उड़ जा बथौं मा, मजा कर ले ....

जिस वक्त में इन पक्तियों को लिख रहा हूं, ठीक इस वक्त टीम इंडिया के कैप्टन महेंद्र सिंह साक्षी रावत के साथ विवाह सूत्र में बंध रहे हैं. माही और साक्षी दोनों मूल रूप से उत्तराखंड से हैं, दोनों की शादी दून में हो रही है. इसलिए इस वक्त पहाड़ी सेंटिमेंट कुछ ज्यादा ही हावी है. वैसे माही खुद को कितना पहाड़ी मानते हैं. इस बावत उन्होंने कभी कुछ नहीं कहा फिर हम दिल इस वक्त मान कर चला है कि अपना कोई भुला शादी कर रहा है. चूंकि धौनी सेलीब्रिटी हैं, इसलिए अच्छा लगा रहा है कि अपना भुला देश भर में छाया हुआ है. मैं कुछ देर पहले ही धौनी के विवाह स्थल विश्रांति रिसार्ट से लौटा हूं. मेरे न्यूज रूम में सिर्फ और सिर्फ धौनी की चर्चा है, इधर टीवी पर भी सिर्फ धौनी छाया हुआ है. इंडिया टीवी को गजब कर रहा है. भाई लोग स्टूडियो में ही कुमाऊंनी शादी करवा रहा है, महिलाएं अगोड़ा पहन कर स्वाल तल रही हैं. स्टूडियो में छोलिया नृत्य हो रहा है तो बैकग्राउंड में बेडू पाको गूंज रहा है. कुल मिलाकर जय उत्तराखंड वाला जोश आ रहा है जी. इधर दिल्ली में एनबीटी न्यूज रूम में राकेश परमार भी इसी तरह खुश हो रहा है तो फरीदाबाद में मेरे भैजी भी इतने खुश है कि बार बार फोन कर मेरे से अपडेट ले रहे हैं. मुझे बैकग्राउंड में गीत बजता हुआ सुनाई दे रहा है माही बेटा उड़जा बथौं मा, मजा कर ले तिमला बथौं मां. बल तेरी मांगण हो ग्याई ........

28 जून, 2010

जमीन की जंग

इन दिनों उत्तराखंड में जमीन की जंग छिड़ी हुई है. क्या सीएम क्या नेता प्रतिपक्ष और क्या मुख्य विपक्षी दल के नेता हर कोई अपनी अपनी जमीन बचाने के लिए लड़ाई लड़ रहा है. जी नहीं, ये महानुभाव कोई राजनैतिक जमीन के लिए नहीं लड़ रहे हैं बल्कि ये मामला तो करोड़ों के वारे न्यारे करने वाली जमीन का है. निशंक को उत्तराखंड का सीएम बने साल भर हो गया है. और भाई साहब पावर प्रोजेक्ट आवंटन में पहले ही फंस चुके हैं. साहब पर ताजा आरोप ऋषिकेश में स्टर्डिया कैमिकल की जमीन बेचने को लेकर लगे हैं. मामला कुछ यूं है कि करोड़ों की इस बेशकीमती जमीन को कुछ लाला टाइप आरएसएस से जुडे़ लोगों को बेच दिया गया. जिस कंपनी को ये जमीन बेची गई, उसमें भाजपा के पूर्व प्रदेश प्रभारी अनिल जैन भी भागीदार बताए जाते हैं. नियमानुसार इस जमीन को बेचना संभव नहीं था, फिर भी भाई निशंक ने एक ही दिन में जमीन के तमाम कागजात फाइनल कर डील पर मुहर लगा दी. अब विपक्ष कह रहा है कि इस डील में करोड़ों आर पार हो गए हैं. कुछ दिन ये मामला मीडिया में भी छाया रहा, लेकिन फिर निक्कू दाई सब कुछ शांत करवाने में कामयाब रहे.
इधर निक्कूदाई की जमीन खिसक रही थी तो इधर उनके बाल सखा नेता प्रतिपक्ष पर भी देहरादून के सहसपुर में सौ बीघा जमीन कब्जाने का आरोप लगा. प्रशासनिक रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ है कि दाल में कुछ काला है. वैसे ये पत्नी दीप्ती रावत और लक्ष्मी राणा के नाम पर बताई जाती है. दीप्ती हरक सिंह की धर्मपत्नी हैं लेकिन ये लक्ष्मी कौन है ??? इस बारे में आप लोग खुद ही पता लगवा लें तो ठीक रहेगा. खैर मामला बढऩे पर हरक सिंह ने देहरादून में बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस कर आरोप लगाए कि सरकार उनकी जमीन जानबूझकर विवादित बता रही है. उनकी पत्नी की तरफ ये मामला लोकायुक्त के पास भी दर्ज कर दिया गया. लेकिन इसी दिन बीजेपी ने भी प्रेस काफ्रेंस कर हरक सिंह के तमाम दावों को मय प्रमाण के गलत ठहरा दिया है. हरक सिंह प्रेस कांफ्रेंस में आरोप लगाया कि उनके बाल सखा निक्कू दाई बोले तो निशंक के बीच एक गुप्त समझौता था जिसमें एक दूसरे के निजी मसलों को ना छेडऩे की बात तय हुई थी. पर अब निक्कू दाई ने उनकी जमीन वाली बात लीक कर दी है इसलिए उनकी तरफ से भी समझौता समाप्त और अब वो भी निशंक की पोल खोलने जा रहे हैं.
इन सबके बीच कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष यशपाल आर्य पर भी हल्द्वानी में शिल्पकारों के लिए आवंटित जमीन पर कब्जा करने का आरोप है. हालांकि आर्य का कहना था कि ये जमीन उन्हें विभागीय योजना के अनुसार आवंटित की गई थी. इस में गोल मोल जैसा कुछ नहीं है. पर कहने वाले कह रहे हैं कि अब हमारे नेता ही इस खोसला का घोसला टाइप रोल करने लगे हैं तो इस राज्य का क्या होगा खुदा जाने

06 अप्रैल, 2010

या बी लडे़ लगीं राली


तुम भी सूणा, मिन सूणयाली
गढ़वाले ना कुमौ जाली उत्‍तराखंडे राजधानी बल देरादूणे मा राली
गिच्‍च त आई, घन बोल्‍याली
ऊन बोलण छो बोल्‍याली
हमन सुणन छौ सूण्‍याली
याबी लडे़ लगीं राली, लडे़ हमरी लगीं राली

राज से पैली राजधानी कै छे पर सरकार नी मानी गढ़वाले कुमौं क बीच
जनता न गैरसैण ठाणी
ठाण्‍याली त ठाण्‍याली
याबी लडे़ लगीं राली, लडे हमरी लगीं राली

नो बरसू मां सैकी जागी धन्‍या हो पंडजी पै लागी पैंसठ लाख रुपया खर्ची
देरादूण अब खोज साकी जनता क पैंसो क छर्वाली
याबी लडे़ लगीं राली, लडे हमरी लगीं राली

गैरसैंण बल भ्‍यूंचल की डैर
राजकाज बल कनक्‍वै हूण
सुध सुविधा कुभी नी छिन उख हमर छंद त देरादूण
अफसर नैतों न सोच्‍याली
याबी लडे़ लगीं राली, लडे हमरी लगीं राली


अलकनंदा, पिंडर नदी
नित बगणीन पाणी नी
गिच त आई बोलणा छी गैरसैंण बल पाणी नी यखे जल संपदा भैर जाली
याबी लडे़ लगीं राली, लडे हमरी लगीं राली

कांग्रेस भाजपा नी रैनी
गैरसैंण का हम का कभी
सड़क मा भी सत्‍ता मा भी यूकेडी बल जख तख मां
सरकार कब तक बौगा साराली
याबी लडे़ लगीं राली, लडे हमरी लगीं राली

तो उत्‍तराखंड की राजधानी आखिरकार देहरादून ही बनने जा रही है। राजधानी चयन के लिए गठिन दीक्षित आयोग की रिपोर्ट नौ साल बाद सरकार के हाथ में आ चुकी है। आयोग ने पूरे नौ साल में 65 लाख खर्च कर देहरादून को ही स्‍थायी राजधानी के काबिल पाया। गैरसैंण को आयोग ने इस तर्क (पढे़ कुतर्क) पर खारिज कर दिया है कि वहां सुविधा नहीं है, वहां पानी नहीं है ये बात और है कि यहां से पिंडर, अलकनंदा जैसी नदियां निकली हैं, जो गंगा में समाहित होकर दिल्‍ली तक की प्‍यास बुझाती है। नेगी जी ने अपनी हालिया रिलीज एलबम सल्‍याणा स्‍याली में इस विषय पर उपरोक्‍त गीत लिखा है, यह गीत इस एल्‍बम से ही साभार यहां प्रस्‍तुत किया गया है। आने वाले दिनों में इस मंच पर राजधानी के मसले पर विमर्श किया जाएगा, आप सब लोगों की टिप्‍पणियां का इंतजार रहेगा ।
संजीव कंडवाल

03 अप्रैल, 2010

पूछोगे फाणा और नाली, तो खाओगे गाली



क्‍लास 7
विषय साइंस

रमेश और मोहन दोस्‍त हैं । दोनों को पीलिया हो गया है, डॉक्‍टर ने इन्‍हें फाणा और डुबके खाने को कहा है । डॉक्‍टर ने ऐसा क्‍यूं कहा?

क्‍लास 6
विषय साइंस

सुरभि की दादी के पास दो नाली जमीन है तो उन्‍हें कितनी मुट्ठी बीज की आवश्‍यकता है ?
............
ये सवाल उत्‍तराखंड विधालयी शिक्षा परिषद की जूनियर क्‍लास की सालाना परीक्षाओं में पूछे गए हैं। फाणा, डुबके नाली जमीन, मुट्ठी बीज जैस संबोधन को सुनकर हो सकता है आपको ‘ठंडो रे ठंडो’ का अहसास हो रहा हो, लेकिन सच ये है कि इस गुस्‍ताखी पर हंगामा खड़ा हो गया है । हो सकता है कि प्रश्‍नपत्र में इन शब्‍दों को डालने की गुस्‍ताखी करने वाले मास्‍टर साहब अपनी नौकरी से भी हाथ धोए। वरना इन साहब को पेपर सैटर की भूमिका से प्रतिबंध तो झेलना ही पडे़गा। बस चूक ये हुई कि पेपर सैटर मास्‍साब ये भूग गए कि इस पर्वतीय राज्‍य में रुड़की, हरिद्वार जैसा मैदानी भू भाग भी है, लगता है महाशय अब भी उत्‍तराखंड़ को पहाड़ी राज्‍य मानने की भूल में जी रहे हैं । कितने भोले हैं हमारे मास्‍साब, इन्‍हें नहीं पता कि उत्‍तराखंड की विधानसभा में मैदानी क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों का बहुमत है, इसलिए धरती पुत्रों को फाणा, झंगोरा, छंछया, बाडी के स्‍वाद को भूल ही जाना चाहिए । खैर मूल प्रश्‍न पर लौटते हैं, गढ़वाल मंडल के पर्वतीय जनपदों में तो फाणा, डुबके, नाली जमीन, मुट्ठी बीज को जैसे तैसे हजम कर लिया गया, लेकिन रुड़की में हंगामा खड़ा हो गया। बीईओ सैनी साहब ने इसे स्‍टूडेंट के साथ मजाक करार दिया है, उनका कहना है कि पर्वतीय मूल के शिक्षक भी इन शब्‍दों के मायने नहीं जानते उदाहरण के लिए उन्‍होंने जीआईसी रुडकी के प्रिंसिपल जीएस नेगी का उदाहरण दिया कि नेगी साहब तो पहाड़ी है, पर ये शब्‍द तो उन्‍हें भी अटपटे लगे हैं। अब आप ही बताओ पेपर सैटर महोदय को इस गुस्‍ताखी के लिए आप क्‍या सजा देंगे ? अति सम्‍मानित न्‍यायधीश महोदय इस मसले पर कोई भी सजा मुकर्रर करने से पहले इस तथ्‍य पर ध्‍यान दें कि, हमें एक ऐसा राज्‍य मिला है, जिसकी अपनी कोई प्रतिनिधि बोली भाषा नहीं है, प्रतिनिधि खान पान नहीं है, प्रतिनिधि पहनावा नहीं है, अधिकारिक राजधानी नहीं है, हमें एक ऐसा राज्‍य नसीब हुआ है, जिसकी आत्‍मा नहीं है, अगर है तो वो हमारे माकूल नहीं है । इसलिए मिलार्ड ऐसी गुस्‍ताखी करने वाले मास्‍साब को सख्‍त से सजा दी जाए, ताकि कोई धरती पु्त्र भविष्‍य में अपनी जुबान में सोचने समझने की जुर्रत न कर पाए ।

29 मार्च, 2010

उंदारियूं का बाटा


वो जुलाई की एक उमस भरी सुबह थी। उस दिन 13 जुलाई को इंटर पास करने के बाद मैं पहली बार सुबह नौ बजे की बस से अपनी जड़ों से बेदखल हुआ था। ये मेरी नियति थी, मेरी ही क्‍या हर पहाड़ी नौजवान की जिसके लिए इंटर पास करने का मतलब अपनी माटी छोड़ने का फरमान आ जाना भी होता है । मुझे अहसास था कि शायद जिंदगी यहां पर एक मुक्‍कमल मोड़ ले रही है । मैं घर के एक एक कोने को गहराई से निहारता हुआ गांव के बडे़ बुजुर्गों के थके हुए लेकिन बेहद आत्‍मीय चेहरों पर नजर डालता हुआ बस स्‍टैंड तक पहुंचा । ठीक नौ बजे जीएमओयू की बस हार्न बजाते हुए सामने के मोड से प्रकट हुई, मैं बस में सवार हो गया, इस तरह मैने अपनी माटी छोड़ दी ।
बस में नेगी दा का गीत बज रहा था ‘ना दौड़ ना दौड़ उंदारियूं का बाटा’। गीत मेरी विदाई की बैकग्राउंड में बज रहा था, इसलिए मुझे रोना आता रहा, मैं खुद को किसी तरह संभालता रहा । मैं अंदर ही अंदर लौट कर आने का संकल्‍प मन में ले रहा था। दोपहर एक बजे मैं ऋषिकेश पहुंचा और यहां से दिल्ली की बस पकड़ ली ।।।।।।।।
.... अब मेरे सामने दिल्‍ली का समर था। यहां उमस थी, लू थी, मारामारी थी, जेबकतरे थे, बेदर्द लोग थे जो फकत ब्‍ल्‍यू लाइन में चढ़ने के लिए आपके ऊपर से होकर गुजरने का हौसला रखते हैं। मेरे लिए यहां हर चीज नई थी, बल्कि अटपटी थी। मन किया सबकुछ छोड़कर वापस भाग जाऊं, मुझे नहीं रहना यहां । लेकिन पीछे मुड़कर देखने का मेरे पास कोई विकल्‍प नहीं था, मैने एडजस्‍ट किया और धीरे धीरे खुद को दिल्ली के अनुकूल पाने लगा। पहाड़ मुझे अब भी प्‍यारे थे, लेकिन ज्‍यादा प्‍यारी नौकरी थी । इस तरह गांव छूटा, पहाड़ भी छूटा, देवदार की सरसर बहती हवा और बांज की जड़ों का ठंडा पानी गटकने की आदत भी जाती रही । मैने यहां देखा कि अपने कई भाई बंद दिल्‍ली के माहौल में सेट होने के लिए कंडवाल की जगह शर्मा, रावत की जगह सिंह बन गए हैं । सब चलता है कि तर्ज पर ।
.......शुरू शुरू में हर चीज छूटने का दर्द सालता रहा, यहां तक कि पड़ोस के गांव के बौड़ा, काका और काकी की याद भी आती रही । जो मेरे नाम के सा‍थ मेरे पूरे परिवार का इतिहास, गौड़ी बाछी के बारे में भी जानकारी रखते थे । गांव के नौनिहाल जो कई बार नंग धंडग होकर एक साथ हाथ पकड़ खेलते रहते वो बरबस यादों में आते । गोकि वो मेरी उम्र से काफी छोटे थे, मैं उनमें खुद के बचपन को झांक कर देखने की कोशिश करता । तिबारी में दबे पांव आने वाली ---‘बिराली’ याद आती, याद आता कि किस तरह गांव का एक मात्र पालतू कुत्‍ता वक्‍त बेवक्‍त भौंकता रहता। सौंण भादों की घनधोर बरसात में पटाल से लगातार गिरती धार भी सालों तक कानों में बजती रही । यादों का अंधड अक्‍सर परदेश के दर्द को बढ़ा जाता। ।।।।।।।
।।।।। मगर यादों को दिमाग में ठूसे रखने की भी एक सीमा होती है । नए सपनों को पूरा करने के लिए भी तो दिमाग में स्‍पेश रखनी है । आखिर इन सपनों को पूरा करन के लिए ही तो पहाड़ से आए हैं । जल्‍द से जल्‍द खुद को नौकरी में जमाना है, यहीं किसी पहाड़ी लड़की को ‘ब्‍यौंलि’ बनाने का सपना भी सच करना है । जिंदगी अतीतजीवी होकर नहीं चलती, पहाड़ देखने में तो अच्‍छे लगते हैं पर इन्‍हें झेलना सचमुच कठिन है । बैकग्राउंड मजबूत न हो पाने के कारण मैं तो बहुत कुछ नहीं कर पाया, लेकिन बच्‍चों को वो सबकुछ देना है जो मुझे नहीं मिला। हां उम्र की आखिरी ढलान पर सारी जिम्‍मेदारी निभाकर अपने गांव में बस जाउंगा । तब ना मुझे कमाने की चिंता होगी, न भविष्‍य की । बस किसी तरह जिस माटी पर जन्‍म लिया वहीं खाक हो जाऊं । ।।।।।।।।
तीस साल बाद
।।।।।।।।।
अब जिंदगी उस मुकाम पर भी पहुंच गई है । जो सपने देखे थे वो आधे अधूरे ढंग से पूरे भी हो चुके हैं । पहाड़ आज भी यादों में सताता है । सच मानो दर्द अब कुछ ज्‍यादा ही बढ़ता जा रहा है। पर कहीं कुछ बदल भी गया है । नयार, हैंवल, रवासन, भागीरथी, गंगाजी में अब तक कितना ही पानी बह चुका है । शरीर अब जवाब दे रहा है, ब्‍लडप्रेशर, डायबटीज जैसी बीमारियां अब हर सांस के साथ चलती हैं । पहाड़ की उतार चढ़ाव में घुटने में भी दर्द उभर आता है । मैं तो पिफर भी जड़ों के लिए इन कष्‍टों को झेल जाऊं । पर मिसेज का क्‍या करूं । वो तो सड़ी गर्मी में भी दिल्‍ली का ‘फ़लैट’ छोड़ने को तैयार नहीं है । उसके पास कई तर्क हैं । बीमारी, मौसम, सबसे बड़ा घर खाली छोड़ने पर चोरी का डर । बंद घरों में चोरी की खबर वो कुछ ज्‍यादा ही जोर से पढ़ती है । कई बार मैं भी खुद को उसके तर्क से सहमत पाता हूं । उसका कहना है कि अचानक तुम्‍हारी तबीयत खराब हो जाए तो वहां अच्‍छे डॉक्‍टर ही कहां हैं, धार खाल के सरकारी डॉक्‍टर के भरोसे वहां रहने का रिस्‍क कैसे लें ।

कई बार सोचता हूं कि गांव में दो कमरों का एक मकान बना लूं । कोई न भी आए तो मैं खुद ही जाकर महीने दो महीने वहां बिता आउँ। भतीजे की ब्‍वारी दो रोटियां तो दे ही देगी । लेकिन ख्‍याल आता है कि मैं तो साल दो साल का मेहमान हूं, मेरे पीछे उस मकान की क्‍या उपयोगिता रहेगी, बच्‍चे बाद में मुझे ही बेवजह खर्च करने के लिए कोसेंगे । इस कशमकश में दिन तेजी से बीत रहे हैं । और मेरी बैचेनी इसी तेजी के साथ बढ़ रही है । मैं अब भी दुविधा में झूल रहा हूं । यहां ‘अजनबी’ हूं तो वहां ‘अनपिफट’ । मुझे पहाड मैं दिल्ली की सुविधा चाहिए, ये संभव नहीं है। अब बस कभी कभी डीवीडी पर गढ़वाली गाने बजा कर खुद को तृप्‍त कर लेता हूं । घर में गढ़वाली बोली पर नियंत्रण रखने वाला मैं अकेला शख्‍स हूं । इस तरह अपने ही घर में मैं भाषायी अल्‍पसंख्‍यक होने का भय महसूस करता हूं । आज 60 की उम्र पार करने के बाद मेरा ये संकल्‍प बस सपना बन कर रह गया है । ना दौड़ ना दौड़ गीत मैं अब भी सुनता हूं, पर ये गीत मुझे अब धिक्‍कारता है ।
ये मेरी आपबीती जैसी है, अगर आपकी भी कुछ ऐसी ही खैरी है तो जरूर नीचे अपनी प्रतिक्रिया दें ।
संजीव कंडवाल