05 अगस्त, 2010

सुन जरा एक 'कचरा' धुन



कल बबली (मेरी वाइफ) ने घर से लौटकर हमेशा की तरह स्कूल की दिन भर की बातें मुझसे शेयर की। यह कि स्कूल में १५ अगस्त की तैयारियां शुरू हो गई है. और छोटे छोटे बच्चे कई कल्चरल प्रोग्राम पेश करेंगे. उसने बताया कि दो तीन बच्चे गढ़वाली गीत भी गाएंगे. उदाहरण के तौर पर एलकेजी का एक बच्चा 'घुच्चा घुना घुन' गाना तैयार कर रहा है. अब हमेशा की तरह मैं मूल बातचीत से भटकर फ्लैश बैक में चला गया. और दिमाग में 'घुच्चा घुना घुन' 'घुच्चा घुना घुन' का इको होने लगा. बस मैने कई बार नहीं नहीं .... नहीं किया. वरना शॉक तो मुझे कुछ इसी तरह का लगा था. घुच्चा ... घुना... घुन... ये क्या है भई. क्या हम इन्हीं गानों से अपनी बोली भाषा को बचाएंगे? या कि यही गाने अब हमारे प्रतिनिधि लोक या प्रचलित गीत होंगे? कल हमारे बच्चे ही हमसे घुच्चा ... घुना... घुन... के मायने पूछेंगे तो हम कैसे समझाएंगे. पहले से ही विलुप्त होती गढ़वाली में हम ये कौन सा शब्द कोश जोड़ रहे हैं ? घुच्चा ... घुना... घुन... घुच्चा ... घुना... घुन... घुच्चा ... घुना... घुन... ९० के दशक में नेगी जी के उत्कृष्ट काल के बावजूद उस समय गढ़वाली गीतों का बहुत बड़ा मार्केट नहीं था. ये ९२९३ के आसपास अनिल बिष्ट ने 'भानुमति को पाबौ बजार बुलाकर कुर्ता सुलार' जैसी शानदार भेंट देने का वादा क्या किया कि हंगामा मच गया. गाना जैसा भी था, लेकिन हिट हुआ. और अनिल बिष्ट कम से कम उस वक्त बड़ा नाम हो गए थे. इस तरह भानुमति ने हल्के गानों के लिए एक लकीर खींच दी। और देखते ही देखते ऐसे लिख्वार, गित्वार भाईयों की भीड़ उमड़ पड़ी जो कुछ भी हल्के से हल्का, छिछौरे गीतों को गाकर नाम कमाना चाहते थे. ये लोग अपने शौक को पूरा करने के लिए जमा पूंजी लेकर नोएडा दिल्ली के प्रोडक्शन हाउस में जाते, फिर अनाप शनाप गाकर कैसेट भी निकालते. कमाल की बात तो कि ऐसे गीत लोगों को पसंद भी खूब आते गए. मैं देखता हूं कि देहरादून की अधिकांश शादियों में ऐसे ही हल्के, अर्थहीन ओछे गाने खूब बजते हैं और कमाल ये कि लोग इन घुच्चा ... घुना... घुन... पर थिरक भी लेते हैं. माना कि ये अधिकांश गढ़वाली गीत प्रेमी 'रासायनिक द्रव्य' के प्रभाव में ठुमकते हैं. पर मुझे ये देखकर बेहद कोफ्त होती है कि हमारे किसी भी समारोह में ऐसे ही गीतों की भरमार होती है. इन गानों में सिर्फ शब्द ही बकवास होते तो कोई बात नहीं थी, म्यूजिक भी वाहियात किस्म का होता है. लोग फिर भी ठुमक लेते हैं .....


ऐसा नहीं है कि इस जमाने में कुछ भी मीनिंगफुल नहीं लिखा जा रहा है. या उम्दा नहीं है. नेगी दा तो अभी जुटे ही हैं कुछ और नवोदित कलाकार भी अच्छा कर रहे हैं. प्रीतम फिलहाल 'राजुली' और 'सरुली' जैसी धूम नहीं मचा पा रहे हैं तो भी किशन महिपाल ने 'रामनगर रामढ़ोल' बजाकर दिल को सुकून बख्शा है. एक दो गीत मंगलेश भी ठीक गाए हैं. पर ये उम्दा गीत मुझे कहीं भी सुनने को नहीं मिलते. न तो शादी ब्याह के डीजे में ना लोगों के मोबाइल रिंगटोन के रूप में और नहीं लोगों के पर्सनल कलेक्शन में. सब तरफ हावी है तो घुच्चा ... घुना... घुन... एक कचरा धुन.