03 अप्रैल, 2010

पूछोगे फाणा और नाली, तो खाओगे गाली



क्‍लास 7
विषय साइंस

रमेश और मोहन दोस्‍त हैं । दोनों को पीलिया हो गया है, डॉक्‍टर ने इन्‍हें फाणा और डुबके खाने को कहा है । डॉक्‍टर ने ऐसा क्‍यूं कहा?

क्‍लास 6
विषय साइंस

सुरभि की दादी के पास दो नाली जमीन है तो उन्‍हें कितनी मुट्ठी बीज की आवश्‍यकता है ?
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ये सवाल उत्‍तराखंड विधालयी शिक्षा परिषद की जूनियर क्‍लास की सालाना परीक्षाओं में पूछे गए हैं। फाणा, डुबके नाली जमीन, मुट्ठी बीज जैस संबोधन को सुनकर हो सकता है आपको ‘ठंडो रे ठंडो’ का अहसास हो रहा हो, लेकिन सच ये है कि इस गुस्‍ताखी पर हंगामा खड़ा हो गया है । हो सकता है कि प्रश्‍नपत्र में इन शब्‍दों को डालने की गुस्‍ताखी करने वाले मास्‍टर साहब अपनी नौकरी से भी हाथ धोए। वरना इन साहब को पेपर सैटर की भूमिका से प्रतिबंध तो झेलना ही पडे़गा। बस चूक ये हुई कि पेपर सैटर मास्‍साब ये भूग गए कि इस पर्वतीय राज्‍य में रुड़की, हरिद्वार जैसा मैदानी भू भाग भी है, लगता है महाशय अब भी उत्‍तराखंड़ को पहाड़ी राज्‍य मानने की भूल में जी रहे हैं । कितने भोले हैं हमारे मास्‍साब, इन्‍हें नहीं पता कि उत्‍तराखंड की विधानसभा में मैदानी क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों का बहुमत है, इसलिए धरती पुत्रों को फाणा, झंगोरा, छंछया, बाडी के स्‍वाद को भूल ही जाना चाहिए । खैर मूल प्रश्‍न पर लौटते हैं, गढ़वाल मंडल के पर्वतीय जनपदों में तो फाणा, डुबके, नाली जमीन, मुट्ठी बीज को जैसे तैसे हजम कर लिया गया, लेकिन रुड़की में हंगामा खड़ा हो गया। बीईओ सैनी साहब ने इसे स्‍टूडेंट के साथ मजाक करार दिया है, उनका कहना है कि पर्वतीय मूल के शिक्षक भी इन शब्‍दों के मायने नहीं जानते उदाहरण के लिए उन्‍होंने जीआईसी रुडकी के प्रिंसिपल जीएस नेगी का उदाहरण दिया कि नेगी साहब तो पहाड़ी है, पर ये शब्‍द तो उन्‍हें भी अटपटे लगे हैं। अब आप ही बताओ पेपर सैटर महोदय को इस गुस्‍ताखी के लिए आप क्‍या सजा देंगे ? अति सम्‍मानित न्‍यायधीश महोदय इस मसले पर कोई भी सजा मुकर्रर करने से पहले इस तथ्‍य पर ध्‍यान दें कि, हमें एक ऐसा राज्‍य मिला है, जिसकी अपनी कोई प्रतिनिधि बोली भाषा नहीं है, प्रतिनिधि खान पान नहीं है, प्रतिनिधि पहनावा नहीं है, अधिकारिक राजधानी नहीं है, हमें एक ऐसा राज्‍य नसीब हुआ है, जिसकी आत्‍मा नहीं है, अगर है तो वो हमारे माकूल नहीं है । इसलिए मिलार्ड ऐसी गुस्‍ताखी करने वाले मास्‍साब को सख्‍त से सजा दी जाए, ताकि कोई धरती पु्त्र भविष्‍य में अपनी जुबान में सोचने समझने की जुर्रत न कर पाए ।

4 टिप्‍पणियां:

Deepak Tiruwa ने कहा…

गंभीर समस्या है मित्र ! न सिर्फ हम मैदानोंमुखी पहाड़ी राज्य के हवाले किये गए हैं बल्कि दो सबसे महंगे पर्यटन नगरों में राजधानी और उच्च न्यायालय बनाकर हम सरकारी तंत्र में अपनी दस्तक और न्याय से भी वंचित कर दिए गए हैं...

VICHAAR SHOONYA ने कहा…

मैं दिल्ली में पैदा हुआ और पला बड़ा कुमाउनी हूँ पर उत्तराखंड की दोनों बोलीओं काफी अच्छी तरह से समझ लेता हूँ। तो भला उत्तराखंड के लोग इन शब्दों के इस्तेमाल पर कैसे आपत्ति कर सकते हैं। मुझे बहुत दुःख होता है जब मैं पहाड़ से आये आदमी से मिलता हूँ और पहाड़ी में बात करता हूँ तो वो मुझसे हिंदी में ही बात करते है और बताते है की वो पहाड़ी बोली भूल गए हैं । चलिए लम्बी बात है कभी और लिखूंगा अभी तो यही कहूँगा की नेगी जी मैंने आपके ब्लॉग का अनुसरण करना सिर्फ इसलिए शुरू किया क्योंकि आप उस जगह पर हैं जहाँ कभी मेरे माता पिता और पुरखे रहा करते थे। आप इसी तरह से पहाड़ की ताजा खबरे देते रहिये। और में खुद को पहाड़ से जुडा हुआ महसूस करता रहूँगा।

Harish ने कहा…

Bahut accha. jo baat dil ko chhu jaye, usse accha kuch nahi ho sakta. apne purvajo ki yadein humko hamesha accha karte rahne ke liye prerit karti rahati hai.

Hem Pant ने कहा…

भैजी प्रणाम! आपका ब्लाग देखकर अच्छा लगा..नरेन्द्र नेगी जी के कुछ चुनिन्दा गानों को हमने नये अन्दाज में इन्टरनेट पर उपलब्ध कराने की प्रयास किया है.. आप इस लिंक पर जाकर गानों के बोल, पढने और समझने के साथ गाना देख-सुन भी सकते हैं-

http://www.apnauttarakhand.com/tag/narendra-singh-negi/

हमारा प्रयास आपको कैसा लगा, जरूर बताइयेगा.