29 मार्च, 2010

उंदारियूं का बाटा


वो जुलाई की एक उमस भरी सुबह थी। उस दिन 13 जुलाई को इंटर पास करने के बाद मैं पहली बार सुबह नौ बजे की बस से अपनी जड़ों से बेदखल हुआ था। ये मेरी नियति थी, मेरी ही क्‍या हर पहाड़ी नौजवान की जिसके लिए इंटर पास करने का मतलब अपनी माटी छोड़ने का फरमान आ जाना भी होता है । मुझे अहसास था कि शायद जिंदगी यहां पर एक मुक्‍कमल मोड़ ले रही है । मैं घर के एक एक कोने को गहराई से निहारता हुआ गांव के बडे़ बुजुर्गों के थके हुए लेकिन बेहद आत्‍मीय चेहरों पर नजर डालता हुआ बस स्‍टैंड तक पहुंचा । ठीक नौ बजे जीएमओयू की बस हार्न बजाते हुए सामने के मोड से प्रकट हुई, मैं बस में सवार हो गया, इस तरह मैने अपनी माटी छोड़ दी ।
बस में नेगी दा का गीत बज रहा था ‘ना दौड़ ना दौड़ उंदारियूं का बाटा’। गीत मेरी विदाई की बैकग्राउंड में बज रहा था, इसलिए मुझे रोना आता रहा, मैं खुद को किसी तरह संभालता रहा । मैं अंदर ही अंदर लौट कर आने का संकल्‍प मन में ले रहा था। दोपहर एक बजे मैं ऋषिकेश पहुंचा और यहां से दिल्ली की बस पकड़ ली ।।।।।।।।
.... अब मेरे सामने दिल्‍ली का समर था। यहां उमस थी, लू थी, मारामारी थी, जेबकतरे थे, बेदर्द लोग थे जो फकत ब्‍ल्‍यू लाइन में चढ़ने के लिए आपके ऊपर से होकर गुजरने का हौसला रखते हैं। मेरे लिए यहां हर चीज नई थी, बल्कि अटपटी थी। मन किया सबकुछ छोड़कर वापस भाग जाऊं, मुझे नहीं रहना यहां । लेकिन पीछे मुड़कर देखने का मेरे पास कोई विकल्‍प नहीं था, मैने एडजस्‍ट किया और धीरे धीरे खुद को दिल्ली के अनुकूल पाने लगा। पहाड़ मुझे अब भी प्‍यारे थे, लेकिन ज्‍यादा प्‍यारी नौकरी थी । इस तरह गांव छूटा, पहाड़ भी छूटा, देवदार की सरसर बहती हवा और बांज की जड़ों का ठंडा पानी गटकने की आदत भी जाती रही । मैने यहां देखा कि अपने कई भाई बंद दिल्‍ली के माहौल में सेट होने के लिए कंडवाल की जगह शर्मा, रावत की जगह सिंह बन गए हैं । सब चलता है कि तर्ज पर ।
.......शुरू शुरू में हर चीज छूटने का दर्द सालता रहा, यहां तक कि पड़ोस के गांव के बौड़ा, काका और काकी की याद भी आती रही । जो मेरे नाम के सा‍थ मेरे पूरे परिवार का इतिहास, गौड़ी बाछी के बारे में भी जानकारी रखते थे । गांव के नौनिहाल जो कई बार नंग धंडग होकर एक साथ हाथ पकड़ खेलते रहते वो बरबस यादों में आते । गोकि वो मेरी उम्र से काफी छोटे थे, मैं उनमें खुद के बचपन को झांक कर देखने की कोशिश करता । तिबारी में दबे पांव आने वाली ---‘बिराली’ याद आती, याद आता कि किस तरह गांव का एक मात्र पालतू कुत्‍ता वक्‍त बेवक्‍त भौंकता रहता। सौंण भादों की घनधोर बरसात में पटाल से लगातार गिरती धार भी सालों तक कानों में बजती रही । यादों का अंधड अक्‍सर परदेश के दर्द को बढ़ा जाता। ।।।।।।।
।।।।। मगर यादों को दिमाग में ठूसे रखने की भी एक सीमा होती है । नए सपनों को पूरा करने के लिए भी तो दिमाग में स्‍पेश रखनी है । आखिर इन सपनों को पूरा करन के लिए ही तो पहाड़ से आए हैं । जल्‍द से जल्‍द खुद को नौकरी में जमाना है, यहीं किसी पहाड़ी लड़की को ‘ब्‍यौंलि’ बनाने का सपना भी सच करना है । जिंदगी अतीतजीवी होकर नहीं चलती, पहाड़ देखने में तो अच्‍छे लगते हैं पर इन्‍हें झेलना सचमुच कठिन है । बैकग्राउंड मजबूत न हो पाने के कारण मैं तो बहुत कुछ नहीं कर पाया, लेकिन बच्‍चों को वो सबकुछ देना है जो मुझे नहीं मिला। हां उम्र की आखिरी ढलान पर सारी जिम्‍मेदारी निभाकर अपने गांव में बस जाउंगा । तब ना मुझे कमाने की चिंता होगी, न भविष्‍य की । बस किसी तरह जिस माटी पर जन्‍म लिया वहीं खाक हो जाऊं । ।।।।।।।।
तीस साल बाद
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अब जिंदगी उस मुकाम पर भी पहुंच गई है । जो सपने देखे थे वो आधे अधूरे ढंग से पूरे भी हो चुके हैं । पहाड़ आज भी यादों में सताता है । सच मानो दर्द अब कुछ ज्‍यादा ही बढ़ता जा रहा है। पर कहीं कुछ बदल भी गया है । नयार, हैंवल, रवासन, भागीरथी, गंगाजी में अब तक कितना ही पानी बह चुका है । शरीर अब जवाब दे रहा है, ब्‍लडप्रेशर, डायबटीज जैसी बीमारियां अब हर सांस के साथ चलती हैं । पहाड़ की उतार चढ़ाव में घुटने में भी दर्द उभर आता है । मैं तो पिफर भी जड़ों के लिए इन कष्‍टों को झेल जाऊं । पर मिसेज का क्‍या करूं । वो तो सड़ी गर्मी में भी दिल्‍ली का ‘फ़लैट’ छोड़ने को तैयार नहीं है । उसके पास कई तर्क हैं । बीमारी, मौसम, सबसे बड़ा घर खाली छोड़ने पर चोरी का डर । बंद घरों में चोरी की खबर वो कुछ ज्‍यादा ही जोर से पढ़ती है । कई बार मैं भी खुद को उसके तर्क से सहमत पाता हूं । उसका कहना है कि अचानक तुम्‍हारी तबीयत खराब हो जाए तो वहां अच्‍छे डॉक्‍टर ही कहां हैं, धार खाल के सरकारी डॉक्‍टर के भरोसे वहां रहने का रिस्‍क कैसे लें ।

कई बार सोचता हूं कि गांव में दो कमरों का एक मकान बना लूं । कोई न भी आए तो मैं खुद ही जाकर महीने दो महीने वहां बिता आउँ। भतीजे की ब्‍वारी दो रोटियां तो दे ही देगी । लेकिन ख्‍याल आता है कि मैं तो साल दो साल का मेहमान हूं, मेरे पीछे उस मकान की क्‍या उपयोगिता रहेगी, बच्‍चे बाद में मुझे ही बेवजह खर्च करने के लिए कोसेंगे । इस कशमकश में दिन तेजी से बीत रहे हैं । और मेरी बैचेनी इसी तेजी के साथ बढ़ रही है । मैं अब भी दुविधा में झूल रहा हूं । यहां ‘अजनबी’ हूं तो वहां ‘अनपिफट’ । मुझे पहाड मैं दिल्ली की सुविधा चाहिए, ये संभव नहीं है। अब बस कभी कभी डीवीडी पर गढ़वाली गाने बजा कर खुद को तृप्‍त कर लेता हूं । घर में गढ़वाली बोली पर नियंत्रण रखने वाला मैं अकेला शख्‍स हूं । इस तरह अपने ही घर में मैं भाषायी अल्‍पसंख्‍यक होने का भय महसूस करता हूं । आज 60 की उम्र पार करने के बाद मेरा ये संकल्‍प बस सपना बन कर रह गया है । ना दौड़ ना दौड़ गीत मैं अब भी सुनता हूं, पर ये गीत मुझे अब धिक्‍कारता है ।
ये मेरी आपबीती जैसी है, अगर आपकी भी कुछ ऐसी ही खैरी है तो जरूर नीचे अपनी प्रतिक्रिया दें ।
संजीव कंडवाल

1 टिप्पणी:

VICHAAR SHOONYA ने कहा…

sanjiv ji bahut badiya. yah sabhi pahadiyon ka dard hai sirf apka hi nahin par bade hi sundar dhang se apne prastut kar diya hai. dhanyvad