20 मार्च, 2010

pealo umaal


जुलाई 1974 में जब मैंने पहला गढ़वाली गीत लिखा था, सोचा भी नहीं था कि यह गीत यात्रा, जीवन यात्रा के साथ- साथ दूर तक paunchega , वह पहला गीत तो महज घर से दूर घर-परिवार की ‘खुद’ (याद) का ही परिणाम था, फिर श्रोताओं की स्‍वीकृति व प्रोत्‍साहन‍ मिलने पर अपने लोक-समाज को पढ़ने-समझने के अनवरत प्रयास होते रहे और गीत लेखन जारी रहा।
मनोरंजक लोकगीतों के साथ-साथ पर्यावरण, पलायन व शराबखोरी की समस्‍या, पहाड़ी महिलाओं की सामाजिक स्थिति, पहाड़ी जन-जीवन में बढ़ती तकलीफें, घटते सांस्‍कतिक मूल्‍य व जल-जमीन-जंगल, राजनीति के गिरते स्‍तर पर उठते सवाल आदि अनेक समसामयिक विषयों पर यूं तो छिटपुट रचनाओं का दौर चलता रहा, किन्‍तु 1994 के उत्‍तराखंड आंदोलन ने लोकगीतों की पारंपरिक धारा आंदोलन के गीतों की ओर मोड़ दी। यह परिवर्तन अनायास नहीं आया। मुझे याद है उत्‍तरकाशी में शेखर दा के प्रेरक शब्‍द कि ‘आंदोलन हमारे दरवाजे पर दस्‍तक दे रहा है, लिखने का यही सही समय है। इधर कुमांउ से ‘गिर्दा’ के जनगीतों की ऊर्जा का संचार और इधर उत्‍तरकाशी में कलादर्पण की जनगीतों के साथ प्रभातफेरियों का सिलसिला, और फिर 2 अक्‍टूबर 1994 को मुजफ्फरनगर में उत्‍तराखंड आंदोलनकारियों पर दमनचक्र की प्रतिक्रिया में सड़कों पर दुगने वेग से उभरता स्‍वयंफूर्त जनसैलाब। इसी प्रेरणा और वातावरण में सृजित हुए ये गीत, जिन्‍हें अक्‍टूबर 1994 में ‘उठा जागा उत्‍तराखंड़यूं’ ऑडियो कैसेट में गाकर उस ऐतिहासिक आंदोलन में छोटी सी भूमिका निभाने का मैने भी प्रयास किया। आज उन्‍हीं चंद गीतों व पूर्व रचित अन्‍य जनगीतों को उत्‍तराखंड की गौरवशाली संस्‍था ‘पहाड़’ ने अपने प्रकाशन में शामिल कर मुझे जो मान दिया है, उसके लिए मैं पहाड प‍रिवार का आभारी हूं।
आज की नई पीढ़ी, जो अपनी आंचलिक बोली गढ़वाली- कुमांऊनी से दूर होती जा रही है, के लिए इन गीतों का कितना महत्‍व है, यह तो मैं नहीं कह सकता किन्‍तु इतना अवश्‍य कहूंगा कि नई पीढ़ी को शहीदों की शहादत की दास्‍तां एवं उसके ऐतिहासिक आंदोलन को जानने समझने में ये गीत भी कही न कहीं मददगार साबित होंगे।

नरेन्‍द्र सिंह नेगी
(saabhaar - muth boti ki rakh)

1 टिप्पणी:

बात बेबात ने कहा…

अजी नेगी जी का बारा म कि ब्वन। ऊंका जीत आज भी रोज सुणदू छ। कंडवाल जी आपन बडु सुंदर काम करि। उम्मीद छा ई कोशिश अगने भी जारी रैली। ढेर सारी शुभकामनाएं।
राकेश परमार